क्या कहना

वाह नेताजी क्या कहना
अद्भुत है हमारी नगरी
अजीब हैं  यहाँ के जन
एक पैर कब्र में है
फिर भी फिक्र है सत्ता की।

होड़ पड़ी है सत्ता की गलियारों में
जो शास्वत सत्य है.
न फिक्र है -धर्म  और जन  का
भूल गए घोटाले ही घोटाले
अधियारा ही अधियारा है।

सुनता  हु मैं खाश पेशकश धन जन की
सुनाता  हु मैं सत्ता के गलियारो को
भूल न जाना छपरा, झारखंड, आसाम की व्यथा को
याद करो भगत,राजगुरु और चंद्रशेखर की वाणी को।

बुझने न दो अपने अंदर की मशाल की
जलाये रखो  ………. बुझन न दो
एक दिन ऐसा आएगा
जन की निद्रा भंग हो जायेगा।


व्यथा, आक्रोश, अपनों से दूर की त्रासदी
परिवर्तन प्रकृति का नियम हैं
आज तेरी बरी …… कल मेरी होगी
यह शास्वत सत्य है
मानवता खतरे में पड़ी.….  फिर भी बुत  बना इन्सान।

सुना था चिराग तले अँधेरा
चिराग ही नदारद
क्या होगा दिन दयाल
अब मानव तेरा ही सहारा है।

शहर की भागम - भाग .……  थक गया मानव - जन
पर हम अपने कर्तब्य से बिमुख न हुए!
हृदय कराह उठता … मन गलानी हो जाता
कहा गया आप का आक्रोश !!!!!

हे माँ खोल अपना कपट
हे माँ ले मुझे अपने अंदर !!!







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